भारत में अंग्रेजों की भू राजस्व नीति और प्रभाव

भारत में अंग्रेजों की भू राजस्व नीति:-

पृष्ठभूमि -

भारत में ब्रिटिश भू राजस्व नीति आवश्यक रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक हित से परचलित होती रही है। उसके लिए भारत में कृषि का विकास अथवा किसानों का सुरक्षा महज एक द्वितीय उद्देश्य था , इस का प्राथमिक उद्देश्य अधिकतम रूप से भू राजस्व की वसूली थी।

 कुछ ब्रिटिश पक्षधर विद्वानों ने राजस्व वसूली स्थाई बंदोबस्त ,रैयतवारी व्यवस्था, महालवाड़ी व्यवस्था उपर्युक्त तीनों अतिथियों के विकास में विचारधारा की भूमिक को निर्णायक करार दिया है किंतु परीक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि इसके विकास विचारधारा की तुलना में भौतिक अभिप्रेरणा अधिक निर्णायक सिद्ध हुई थी।


स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था:- 

◆◆ इसे 1793 में कर्नवालिश के द्वारा लागू किया गया था।◆◆यह बंगाल ,उत्तर प्रदेश ,बनारस ,उत्तर कर्नाटक में लागू हुआ था।
◆◆ यह समस्त ब्रिटिश भारत के 19% भूमि पर लगा हुआ था।
◆◆भूमि का अधिग्रहण सदैव जमींदार को होता था

इसके विकास में फ्रांसीसी प्रकृति तंत्रवादियों का प्रभाव बताया जाता है तथा ऐसा माना जाता है कि उपर्युक्त दृष्टिकोण से परिचालित होकर लार्ड कार्नवालिस ने  कृषि व्यवस्था के विकास के लिए कदम उठाया था तथा स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था को लागू किया। वस्तुतः कार्नवालिस की दृष्टिकोण का प्रभाव हो सकता है फिर भी उससे कई ज्यादा अधिक निर्णायक तात्कालिक, भौतिक अभिप्रेरणा रही है ।

इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि स्थाई बंदोबस्त का विकास तीन दशकों के निरंतर प्रयोग का नतीजा था। जिस समय ब्रिटिश कंपनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई थी 1765 में कंपनी का बल रहा  था कि अधिकतम राजस्व की वसूली की जाए एवं इसके अंतर्गत किए गए प्रयासों के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी तथा प्रत्येक वर्ष भू राजस्व की रकम घटती बढ़ती रहती थी इसलिए कर्नवालिश के समक्ष महत्वपूर्ण उद्देश्य था कि कंपनी के भू राजस्व की रकम अधिकतम तथा स्थाई रूप से सुनिश्चित करना ।

स्थाई बंदोबस्त का दूसरा उद्देश्य था बंगाल में कृषि के प्रोत्साहन क्योंकि बंगाल के कंपनी के व्यापार समृद्धि कृषि पर ही निर्भर थी फिर कार्नवालिस की मानना था कि स्थाई बंदोबस्त लागू करने पर जमींदार कृषि के निवेश के लिए प्रोत्साहित होंगे तथा जमींदार की खरीद बिक्री होने के कारण सारी महाजन और साहूकार भी जमीन दारी की खरीद के लिए इच्छुक होंगे परंतु ऐसा कोई भी देखने को नहीं मिला था।


रैयतवारी व्यवस्था:-

◆◆ इसे 1820 में टॉमस मुनरो के द्वारा लागू किया गया था।◆◆ मुंबई असम और मद्रास में लागू था 
◆◆यह समस्त ब्रिटिश भारत की 51% भूमि पर लागू था।
◆◆ भूमि का मालिक किसानों तथा और कर की दर 33% से 55% तक होती थी।

    रैयतवारी व्यवस्था के विकास भी अथवा दृष्टिकोण का प्रभाव प्रबल माना जाता है बताया जाता है कि ब्रिटिश प्रशासक मुनरो और जो अलीफिस्टन पर एक  स्कॉटिश प्रबोधन का प्रभाव था। जिसमें में जमींदारों की तरह किसानों की महत्व को स्थापित किया गया फिर इस पर रिकार्डो के लगान का सिद्धांत प्रभाव माना जाता है जिसमें जमींदारों पर कर लगाने की बात की गई थी किंतु इस व्यवस्था में भी विचारधारा की तुलना में अधिक भौतिक उदेशाय अधिक प्रभावी दिखाई देता है ।
एक तरह से देखा जाए तो रैयतवारी व्यवस्था का विकास स्थाई बंदोबस्त से मोहभंग का परिणाम था ऐसा महसूस किया जा रहा था स्थाई बंदोबस्त के कारण सरकार भावी होने वाले लाभ से वंचित हो गई थी ।
वही जमींदार स्थाई बंदोबस्त से काफी लाभान्वित हुआ था फिर पश्चिम भारत और दक्षिण भारत बंगाल के जमींदार वर्ग की तरह कोई ऐसा स्पष्ट वर्ग नहीं था जिसे का प्रबंधन किया जा सके ।
सबसे बढ़कर तो मद्रास निरंतर युद्ध हुआ था इसलिए उसे अधिक धन की आवश्यकता होती थी सीधे किसानों से समझौता करने का अर्थ है कि सरकार अधिक से अधिक रकम प्राप्त करना चाहती थी।।

महालवाड़ी व्यवस्था :-  

◆1820 में हिल्ट मैकेंजी के द्वारा  लागू किया गया था।
◆◆ यह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब में लागू था
◆◆ यह समस्त ब्रिटिश भारत के 30% पर लागू था ।
◆◆भूमि पर गांव का अधिकार था।
◆◆ ब्रिटिश सरकार को राजस्व देने की जिम्मेवारी गांव के मुखियाओं का था।
◆◆ इसमे कर का दर 60% तक था।

महलवारी व्यवस्था में मध्यस्थ और बिचौलियों को हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया था।
 महालवाड़ी व्यवस्था पर भी विचार धारा के रूप में डेविड रिकार्डो के लगान सिद्धांत अथवा क्लासिकल अर्थव्यवस्था का प्रभाव माना जाता है।
 रिकॉर्डर के अनुसार "भूमि लगान के बड़े भाग को सरकार का दावा होना चाहिए तथा जमींदारों पर भी कर लगाया जाना चाहिए" ।

अर्थात विचारधारा की तुलना में भौतिक कारक ही अधिक प्रभावी रहा जैसा कि हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद के बढ़ते हुए खर्च को पूरा करने के लिए तथा औद्योगिक क्रांति में निवेश करने के लिए औपनिवेशिक सरकार को भारी मात्रा में धन की जरूरत थी।।

ब्रिटिश भू राजस्व नीति का प्रभाव:-

1. किसानों की क्रय शक्ति का कम हो जाना अर्थात भारत में भावी औद्योगिकरण का समर्थन नहीं मिला।

2 किसानों को पहले से अधिक शोषण होने लगा ।

3 ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विभाजन को प्रोत्साहन मिला ।

4 ग्रामीण समाज का आर्थिक विभाजन गाढ़ा हो गया फलत: कृषक संबंधों में तनाव बढ़ गया ।

5 भूमि का भी विखण्डिकरण हुआ । भूमि को खरीद बिक्री योग बना दिया गया फलत ऋण लेने की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई अर्थात किसान अब मांगे दर पर ऋण तो ले लेते थे परंतु नहीं चुका पाने के कारण उनकी जमीन चली जाती थी

6 मुकदमे का विकास हुआ साथ संयुक्त परिवार में टूटना आरंभ हो गया ।

7 ग्रामीण ऋण ग्रसता बढ़ गई भुखमरी और अकाल बढ़ गई जैसे कि अधिकतम भू राजस्व चुकाने के लिए किसानों को नगदी फसल उगाने के लिए बाध्य किया जाने लगा फलत: खाद्यान्न उत्पादन कम हुआ अकाल की बारंबारता बढ़ गई ।

8 स्थाई बंदोबस्त वाले क्षेत्र में ऊपरी स्तर पर सामंतवाद तथा निचले स्तर पर कृषि दासता  को बढ़ावा मिला।

 अतः हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश भू राजस्व नीति का मुख्य उद्देश्य भू राजस्व की जो पद्धतियां लागू की गई उसमें किसानों का अत्यधिक शोषण हुआ क्योंकि किसान भारत की बहुसंख्यक आबादी की प्रतिनिधित्व करता है और गांव में रहता है।
 इस दृष्टि से भारत गांवों में बसता है अतः किसान के निर्धारण से गांव का निर्धन हुआ भारत निर्धन हो गया ।
इतना ही नहीं ब्रिटिश राजस्व नीति से गांव अशांत हो गया जिसकी अभिव्यक्ति के समय-समय पर होने वाले किसान और जनजाति विद्रोह के रूप में देखी जा सकती हैं।।

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