प्रेम: विवाह से पहले या बाद

 क्या है सही रास्ता
प्रेम: विवाह के पहले या बाद>>

मैंने अपने आसपास के कोई 10या20 युवाओं से बात की, उनकी उम्र लगभग गए 25 के आसपास है।और उनमें से ज्यादातर विवाह के आवस्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते देखें, क्योंकि प्रेम यां उनके शब्दों में कहा तो कंपैटिबिलिटी यानी आपसी सामंजस्य के बिना साथ रहने का औचित्य ही क्या और जब प्रेम हो गया तब किसी और बंधन की आवश्यकता ही क्या है?

कुछ हद तक तो वह ठीक भी है... प्रेम को स्त्री पुरुष के संदर्भ में रूमानी तौर पर परिभाषित करने पर जटिलता बढ़ जाती है। मानव मन में इतने सारे जंजाल होते हैं

प्रेम विवाह से पहले या बाद

कि सही रास्ता पकड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है और प्रसंग विवाह का हो तो प्रेम जैसे छलिया बन जाता है।

 ना जाने किस-किस रूप में विध्वमान रहता है... कभी होकर भी ,ना होने का स्वांग रचता है और ना हो तो अपने होने का ढोंग भी करता है।

 प्रेम और विवाह यूं तो एक ही सिक्के के दो पहलू माने जा सकते हैं, परंतु यह भी सच है कि सिक्के में कभी एक चेहरा ऊपर आता है तो कभी दूसरा। यानी यह जरूरी नहीं है कि वैवाहिक जोड़े में प्रेम हो या हर प्रेमी विवाह के बंधन में बंधना ही चाहे।


साथ रहते रहते अंततोगत्वा प्रेम हो ही जायेगा>>

हमारे देश में आज ही अक्सर अरेंज मैरिज ही होती है ,यानी बिना प्रेम के विवाह।

जहां दो अनजान इंसान एक दूसरे के बारे में उतना ही जानते हैं, जितना उन्हें बताया गया है। आमतौर पर ऐसी शादियां का आधार शक्ल सूरत, शैक्षणिक

प्रेम विवाह से पहले या बाद

,धार्मिक, जाती ,आर्थिक और सामाजिक स्थिति आदि ही होते हैं और ऐसे गठबंधन इस उम्मीद से किए जाते हैं कि साथ रहते-रहते अंततोगत्वा प्रेम हो ही जाएगा।

 अब दो परिस्थितियां बनती है- यहां पर पहला यह कि पति-पत्नी के स्वभाव मानसिक और बौद्धिक स्तर ,उनकी रुचिया, उनकी प्राथमिकताएं इतनी भिन्न हो कि प्रेम के अंकुरण के लिए जमीन ही ना मिले , न खाद मिट्टी... यानी कि कोई ऐसा तत्व भी ना हो कि प्रेम उपज सके.... यह परिस्थिति सबसे कष्टकारी है कि अपने साथ रहने का निर्णय कर तो लिया और उस पर समाज और सरकार की मुहर भी लगा ली और अब एक छत के नीचे रहना दुश्वार हो गया...।

 मगर बहुत सी जोड़िया इस सूरत में भी साथ रहती है, जिसके कुछ स्पष्ट और कुछ लुका छिपे  कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण किसी एक का, जो आमतौर पर स्त्री ही होती है, जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र ना होना।

 और दूसरा कारण है जैसे बच्चे.... क्योंकि अलगाव का डंस सबसे पहले गहरा प्रभाव बच्चों को पड़ता है। तो मां-बाप उनके खातिर प्रेम के अभाव में भी साथ साथ रहते हैं

 फिर समाज भी एक कारण होता है कि लोग क्या कहेंगे?इसलिए चारदीवारी के भीतर जितना भी मतभेद हो, बाहर तो यह लोग गलबहियां डालकर ही घूमेंगे। 

कई बार युगल आपसी सामंजस्य ना होने पर अलग अलग ही रहने लगते हैं और कानूनी रूप से उनका रिश्ता बना रहता है.… यानी जैसे विवाह हो कर भी ना हुआ हो। मगर प्रेम में ऐसी स्थिति नहीं होती... प्रेम या तो होगा या नहीं होगा.... ऐसी लीपा-पोती अक्सर मध्यवर्गीय परिवारों में होती है , क्योंकि उच्च वर्गीय तबके में समाज को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है।

     अरेंज मैरिज के बाद दूसरी परिस्थितियां है कि पति-पत्नी बेहतरीन दोस्त बन जाए, अपनी हर बात साझा करें, एक दूसरे का ख्याल रखें और उनके बीच

प्रेम विवाह से पहले या बाद

प्यार की दोस्ती की शक्ल में सदा हरा-भरा बना रहे। यहां प्यार का स्वरूप कुछ अलग हो सकता है, जैसे मान लीजिए पत्नी नहीं है तो पति अपना तनख्वाह उसके हाथों में रख देता है तो यकीन मानिए या उसका प्रेमी है वहीं पत्नी खाने  पर हमेशा पति का इंतजार करती हो उसका प्रेम है .... हमें उसकी आदत या दिनचर्या का हिस्सा भी मान सकते हैं मगर वैवाहिक जोड़े में प्रेम ऐसे ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। आश्वस्ति और प्रेम किसी भी रिश्ते की हड्डी होते हैं...  जिन्हें विश्वास और प्रेम के  तंतु सहारे दिए रहते हैं।


प्रेम तो खुद में एक कमिटमेंट हैं>>

प्रेम और विवाह के बीच तक एक परिस्थितियां बनती है कि, जब जोड़ों में आपसी प्रेम तो होता है , मगर वह विवाह नहीं करना चाहते ... यानी बंधनों से परे रहना उनको भाता है। ऐसे ही विचारों की देन है 'लिव इन रिलेशनशिप'। ऐसे रिश्तो को समाज का अधिकतर वर्ग सवालिया नजर से देखता है, मगर ऐसे युगल समाज की ओर देखते ही कब हैं..... प्रेम जैसे एहसास से जुड़े किसी भी रिश्ते में प्रेम का अलावा दूसरा तार या सपोर्ट सिस्टम नहीं होता है, इसलिए यह रिश्ता हमेशा टूटने की रिस्क अपने साथ लिए चलता रहता है,  क्योंकि यहां मां-बाप, रिश्तेदार, बच्चे या समाज या कानून जैसे कोई बंदी से नहीं होती, ना कोई बंधन होता...यानि जब दिल चाहे अपना सामान उठाया और निकल पड़े....

प्रेम विवाह से पहले या बाद

मगर ऐसा तभी होता है, जब प्रेमियों के मन से प्रेम बाहर निकल पड़े, क्योंकि प्रेम तो खुद में एक कमिटमेंट है और प्रेम नहीं होता तो यह कमिटमेंट भी काफूर हो जाता है। प्रेम होना और विवाह न होने की बात हो तो जेहन  में सबसे पहले मसहूर कवयित्री  अमृता प्रीतम और इमरोज साहब का ख्याल आता है। इस जोड़े ने 41 बरस एक साथ एक छत के नीचे बिताए बिना किसी वैवाहिक बंधन के। 
अमृता की जिंदगी में झांकने से प्रेम के हजारों दिख जाएंगे...उन्होंने जिसे भी चाहा पूरी शिद्दत से चाहा फिर वह चाहे उनका साहिर से एकतरफा प्रेम हो या इमरोज की ओर प्लेटोनिक झुकाव।


प्रेम को समझे, यह महज आकर्षण नही हैं>>

वर्तमान में लिव इन रिलेशनशिप में कुछ दुखद नतीजे देखने को आ रहे हैं, जहां लड़कियां या तो आत्महत्या कर रही है या किसी मानसिक विषाद से गिर रही है। प्रेम के लिए अपना कैरियर दांव पर लगा रही है या कहीं कहीं कैरियर के लिए प्रेम की बलि दे दी जाती हैं ।

ऐसे रिश्तो की नाकामयाबी के पीछे सबसे बड़ा कारण है प्रेम के  सच्चे स्वरूप का ना समझ पाना। जैसे अतिमहत्वाकांक्षी लड़कियां जब अपने बॉस, या एम्प्लॉयर के हुनर, ओहदे या शानो-शौकत से प्रभावित होने लगती है तो, उनका मन धीरे-धीरे उस ओर झुकने लगता है और यह नाजुक दिल इन्हें मोहब्बत समझने लगता है। ऐसे आकर्षण को प्यार समझने की गलती बहुत आम है और इसी आकर्षण के चलते युगल साथ रहने लगते हैं और फिर दुष्परिणाम किसी भयहाव शक्ल के रूप में सामने आते हैं।


प्रेम विवाहों के टूटते या मोहब्बत के रिश्ते की त्रासद अंत को देखते हुए यह मान लेना गलत है प्रेम कोई बहुत कठिन काम है। बहुत सहज और सरल भावना है । यह किसी शिष्य का गुरु से हो सकता है, किसी भक्त को अपने इश्वर से... जैसे मीरा का कृष्ण से प्रेम भक्ति था.....


प्रेम अनुभूति होती है..... यह बड़ी सहजता से पैदा होती हैं और उतना ही सरलता से स्वीकारी भी जानी चाहिए, मगर जैसे ही बात  स्त्री पुरुष की होती है, तो कई प्रश्न चिन्ह लगा दिए जाते हैं, और सवालों की गोलियां बरसाई जाती है और एक लिखित नियमावली थमा दी जाती है कि यह सही है और एक गलत।  जैसे किसी युगल का प्रेम में रहना समाज को स्वीकार है, मगर सारी जिंदगी प्रेम में रहना  और विवाह ना करना कतई स्वीकार नहीं है। 


 कोई स्त्री या पुरुष अगर किसी रिलेशनशिप में है , उसका अगला कदम विवाह हो, सामाजिक रूप से यह बहुत जरूरी है। माता-पिता, परिवार के लोग, अरोशी-परोशी सभी  आते जाते सवाल कर सकते हैं कि ''भाई! शादी कब कर रहे ......'' गोया मोहब्बत इस सरकारी मुहर के बिना नाजायज है। ऐसे जोड़ों के चरित्र को भी शक की नजर से देखा जाता है। यदि आप विवाहित है और आपके बीच प्रेम जैसी कोई भावना नहीं, आपके घर से रोज लड़ाई झगड़े, बर्तन पटकने की आवाज आ रही है, स्त्री की आंखों के नीचे काले घेरे हैं, तभी समाज को आपसे कोई दिक्कत नहीं है ।  लोगों के पेट में दर्द तब होता है, जब दो लोग आपस में प्रेम में होते हैं पर बन्धन से परे हो।


इसकी वजह क्या हो सकती है>>

एक वजह तो दकियानूसी सोच है........ यानी परंपराओं को ढोना है बस!! दूसरी एक  सकारात्मक वजह यह मानी जा सकती है कि विवाह से रिश्ते में ज्यादा स्थायित्व  की उम्मीद बन जाती है।

अगर युगल बच्चा पैदा करना चाहता है, तो कानूनी दांव-पेच नहीं होते , लेकिन अगर समाज बंधनों से परे इन प्रेम संबंधों को खुले हृदय से स्वीकार कर ले, यानी लिव इन रिलेशनशिप को जैसे कानूनी मान्यता मिली है, वैसे समाज भी हरी झंडी दे दे तो रिश्तो में खुलापन आएगा। प्रेमी निश्चित होकर रह सकेंगे..... उनका रिश्ता खुलकर सांस ले सकेगा।

 हर बात की एक बात है कि प्रेम का ओहदा सबसे ऊपर होता है..   समाज की मान्यताओं से कहीं ज्यादा ऊपर। तभी तो कृष्ण राधा के रिश्तो को कृष्ण और रुक्मणी के वैवाहिक संबंधों के मुकाबले बहुत ऊंचा दर्जा प्राप्त है। गर्ग संहिता के मुताबिक जिस तरह पार्वती शिव की शक्ति है उसी तरह राधा कृष्ण की शक्ति है। 

कृष्ण के प्रति  राधा का प्रेम निस्वार्थ भाव से था.... किदवंती है कि एक बार रुक्मणी ने कृष्ण को गर्म दूध पीने के लिए दिया था, तब राधा के तन पर छाले पड़ गए थे.... 


''प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय''  बल्कि दो प्रेमियों के दिल में छिपा  बैठा रहता है और मुस्कुराने की वजह बनता है।

यानी विवाह के पहले प्रेम हो या विवाह के बाद पनपे, सबसे जरूरी है प्रेम का होना, क्योंकि इन्हीं अक्षरों में जिंदगी का सारा सुख छिपा है।



लेखक - अनुलता राज नायर(स्वन्त्रत लेखिका, भोपाल)



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