SUMMARY: MEN ARE FROM MARS & WOMEN ARE FROM VENUS

 1992 में अमेरिकी लेखक और रिलेशनशिप काउंसलर जॉन ग्रे की क़िताब आई, 'मेन आर फ्रॉम मार्स विमेन आर फ्रॉम वीनस'। ग्रे का कहना था कि पुरुष और स्त्री के संबंधों से जुड़ी जो समस्याएं हैं, वे इसलिए हैं क्योंकि बुनियादी तौर पर पुरुष और स्त्री की मानसिक संरचना अलग है। इस क़िताब को जितना सराहा गया, उतनी ही इसकी आलोचना भी हुई। नारीवादियों का कहना था कि यह क़िताब जेंडर गैप और सेक्सिस्ट धारणाओं को बढ़ावा दे रही है।


इस क़िताब को हर किसी ने अपने नजरिए से पढ़ा, समझा और सकारात्मक या नकारात्मक राय जताई। लेकिन अगर हम निष्पक्ष रूप से इस क़िताब को पढ़ें तो इसमें दिए गए तर्कों को अनदेखा नहीं कर पाएंगे। इवॉल्यूशनरी सायकॉलजी स्टडीज में स्त्री-पुरुष के व्यक्तित्व और सामाजिक व्यवहार के बीच के फर्क को आनुवंशिक जड़ों और प्रजनन में उनके योगदान से जोड़ा गया है। सेक्सुअलिटी में भी ये डिफरेंस पता चले हैं। पैरेंटल इनवेस्टमेंट हाइपोथिसिस कहती है कि जो सेक्स ज़्यादा पैरेंटल इनवेस्टमेंट करेगा, वह सेक्स कद-काठी में छोटा होगा, कम एग्रेसिव होगा और सेक्सुअली ज़्यादा संयमित होगा।

इंसानों में देखें तो पैरेंटिंग में महिला का बायोलॉजिकल इनवॉल्वमेंट ज़्यादा है, चाहे वह मां बने या न बने। इसलिए ज़्यादातर महिलाएं कद-काठी और सेक्सुअल मामले में पुरुषों से भिन्न होती हैं। लेकिन यह बात सभी लोगों पर लागू नहीं होती। ऐसे कई पुरुष हैं जो ज़्यादा संवेदनशील होते हैं और कई महिलाएं हैं जो सेक्सुअली बहुत खुले विचारों की होती हैं|

लेकिन हमारी सेक्सुअलिटी हमारे यौनांग तक सीमित नहीं होती। इसमें हमारे अराउज़ल, ऑर्गैज्म, सोच और सेक्सुअल प्रेफरेंस का भी बहुत बड़ा रोल होता है। शरीर के स्तर पर देखें तो स्त्री और पुरुष में उत्तेजना और ऑर्गैज्म का मामला बिल्कुल अलग होता है। स्त्री का सेक्सुअल अराउज़ल पानी की तरह होता है। जैसे तमाम नदियां सागर में आकर मिलती हैं, वैसे ही एक स्त्री का अराउज़ल हाथ, पैर, कंधे और चेहरे के फिज़िकल स्टिमुलेशन से शुरू होता है। अगर कोई पुरुष जल्दबाज़ी में या अज्ञानता में पहली ही बार में अपनी पार्टनर की वजाइना को छूता है तो वह इमोशनली और सेक्सुअली शट डाउन हो जाएगी। हो सकता है कि वह यौन क्रिया जारी रखे, लेकिन पूरी तरह से मुखर नहीं हो पाएगी। पुरुष की सेक्सुअलिटी आग की तरह होती है। इसलिए अगर सेक्सुअल अराउज़ल के समय पुरुष का यौनांग पहली बार में छुआ जाए तो उसे आनंद की अनुभूति होती है और बुरा नहीं लगता।

लेकिन तमाम लोगों को यह बेसिक नॉलेज भी नहीं है क्योंकि हमारे समाज में सेक्स को लेकर एक खास तरह की परदेदारी है और शर्मिंदगी का भाव है। सेक्स एजुकेशन नहीं के बराबर है। पॉर्न एकमात्र ज़रिया है, जहां हम पहली बार सेक्स देखते हैं और समझते हैं। लेकिन पॉर्न देखने वालों और बनाने वालों में अधिकतर मर्द हैं और जो भी पॉर्न बनाया जा रहा है, वह पुरुषों के लिए ही बनाया जा रहा है। पॉर्न में स्त्री के सेक्सुअल आनंद को, उसकी इंटिमेसी को दरकिनार कर दिया जाता है। महज 5-10 मिनट में सेक्स को निपटा दिया जाता है जैसे कि किसी रेस में फिनिश लाइन तक पहुंचना हो। पॉर्न सीन में सेक्स तब मंजिल पर पहुंचता है, जब पुरुष को इजैकुलेशन हो जाए। पुरुष का ऑर्गैज्म एक्सटर्नल होता है और महिला का इंटर्नल। लेकिन इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता।

पॉर्न पर आधारित सेक्स एजुकेशन ने कई मिथकों को बढ़ावा दिया है, जैसे कि वजाइना पर फोकस क्योंकि यह पुरुष के इजैकुलेशन के लिए ज़रूरी है। ऐसे में क्लाइटोरिस को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि महिला बेड पर लेटी है और पुरुष पंद्रह से तीस मिनट तक क्लाइटोरिस स्टिमुलेट कर रहा है? हमने हमेशा सेक्स को परफॉर्मेंस से जोड़ा है। यानी किसी न किसी पार्टनर को कुछ न कुछ तो करना ही है। पॉर्न में जितने भी सीन होते हैं, उनमें पुरुष एक आक्रामक भूमिका में होता है। हमारे समाज में मर्दानगी के जो मापदंड हैं, उस हिसाब से भी पुरुष को किसी न किसी तरह के एक्शन में दिखाया जाता है। ऐसे में क्या कोई पुरुष अपनी पार्टनर के लगभग न दिखने वाले यौनांग को स्टिमुलेट करता अच्छा दिखेगा? दरअसल सहज-सरल सेक्स हमारी कल्पना में ही नहीं है।


आज अगर क्लाइटोरिस के बारे में डिस्कशन और एजुकेशन शुरू हो गया है, तो इसका एक मुख्य कारण महिलाओं में धीरे-धीरे आ रही आर्थिक मजबूती है। महिलाएं सेक्सुअल प्लेजर सहित अपने हर तरह के अधिकारों के बारे में मुखर हो रही हैं। लेकिन सेक्सुअल मामले में बराबर अधिकारों के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी है। हमारे अंदर सेक्स को लेकर शर्मिंदगी इतनी कूट-कूट कर भरी हुई है कि हम साइंटिफिक बातों को अनदेखा कर कथित सभ्यता का चोला पहने रहते हैं, भले ही उस चोले के भीतर हमारी भावनाओं का दम घुटता हो। और हो सकता है कि वह चोला भी सभ्यता का न हो। भारत तो एकमात्र ऐसी सभ्यता है, जहां हजारों साल पहले कामसूत्र लिखा गया। उसे लिखने वाले भी कोई ऐरे-गैरे नहीं, जानेमाने ऋषि वात्स्यायन थे। भारत में खजुराहो और अजंता-ऐलोरा जैसे कई मंदिर हैं, जहां इरॉटिक हेरिटेज रची-बसी है।

बहरहाल, यह समझना ज़रूरी है कि सेक्स सिर्फ़ शारीरिक स्तर का जुड़ाव नहीं होता। इसमें भावनाओं और मानसिक तालमेल का भी बहुत बड़ा रोल होता है। मेरे पास कई महिलाओं के ईमेल और मेसेज आते हैं। वे बताती हैं कि उनके पार्टनर रोमांस के मामले में उदासीन हैं। एक महिला का कहना था, 'वह मुझे अपनी बाहों में तभी लेता है, जब उसका सेक्स करने का मन हो। क्या बिना सेक्स के फिज़िकल इंटिमेसी नहीं हो सकती?' मैं एक पाकिस्तानी कपल को भी कोच कर रही हूं, जिसमें पत्नी का कहना है कि पति उससे इंटिमेट बातचीत नहीं करते। उसका कहना है कि उनके बीच जो भी बातचीत होती है, वह घर के मुद्दों या फिर ज़िंदगी से जुड़े रूटीन कामों के बारे में होती है। फीलिंग्स, सपनों और नितांत गहरे लम्हों की बातें नहीं होतीं।

मैं जब कपल्स को सलाह देती हूं, तो महिलाओं के साथ उनके पुरुष साथी मौजूद होते हैं। कोचिंग के दौरान यह बात सामने आती है कि जो मेल पार्टनर है, वह जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहा, बल्कि उसे पता ही नहीं कि अंतरंग बातें कैसे करते हैं। उसकी यह मजबूरी ओढ़ी हुई नहीं है। यह उसकी जीवनशैली का हिस्सा बन गई है। दरअसल एक हद तक तो बायोलॉजिकल डिफरेंस का हाथ होता है। लेकिन काफी हद तक मामला इस बात से जुड़ा है कि सामाजिक स्तर पर बचपन में लड़के और लड़कियों को किस तरह बड़ा किया जाता है। वे अपने परिवार और समाज में जिस तरह का जेंडर एक्सप्रेशन देखते हैं, उससे उनकी जीवन शैली पर असर पड़ता है। लड़कों को कहा जाता है इमोशन वीकनेस की निशानी हैं। तुम अगर रोओगे तो कमजोर कहलाओगे। इस तरह वह लड़का अपने इमोशनल साइड को दबाने लगता है। यह चीज़ आगे चलकर उसकी इंटिमेट लाइफ पर असर डालती है।

यह पैटर्न तब बदलता है, जब उनके अंदर इस सीखे गए बर्ताव के बारे में जागरूकता आती है। फिर वह पर्सनल स्तर पर नहीं, तो प्रोफेशनल हेल्प से ही सही, इस उलझन से बाहर निकलता है, जो जेंडर को लेकर उसके मन में बैठी हुई होती है।

भावना के स्तर पर खालीपन के ही चलते कई महिलाएं शादी होने या मां बन जाने के बाद सेक्स से दूरी बना लेती हैं। मेरे एक क्लाइंट के वैवाहिक जीवन में इसी वजह से काफी दरार आ गई थी। बात डाइवोर्स तक चली गई। क्लाइंट ने किसी तरह समझा-बुझाकर पत्नी को रोक लिया, लेकिन उनमें सेक्स से बेरुखी बनी रही। वह तीनेक महीने में एकाध बार सेक्स करती थीं, वह भी ड्यूटी मानकर। क्लाइंट बहुत दुखी हैं। उनका कहना है कि उन्हें ऐसा सेक्स नहीं चाहिए जिसमें पत्नी की इच्छा शामिल न हो।

दरअसल हमें यह समझना है कि स्त्री की सेक्सुअलिटी पुरुष से कम या ज़्यादा नहीं होती, बल्कि बिल्कुल अलग होती है। यह फर्क समझने से दोनों पक्षों को सेक्सुअल रिलेशनशिप में संतोष मिलता है। फोरप्ले, इंटरकोर्स, ऑर्गैज्म, इजैकुलेशन...ये सब सेक्स का पार्ट हैं लेकिन सेक्स इन तक सीमित नहीं है। अगर किसी पुरुष को शीघ्रपतन की समस्या हो या किसी महिला को वजाइनल ल्यूब्रिकेशन नहीं हो रहा हो तो इसका मतलब यह नहीं कि सेक्स नहीं हो पाएगा। सेक्स तो एक बुफे की तरह है। और शेफ़ दूसरा कोई नहीं, आप ही होते हैं। अपनी कल्पना, रचनात्मकता, पार्टनर की पसंद और सीमाओं को ध्यान में रखकर बुफे सजाएं। इससे शरीर और मन के स्तर पर जो आनंद मिलेगा, वही सेक्स है।

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