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बह्मचर्य पर हमारे ऋषियों के विचार तथा इसके लाभ और इसे पालन करने के उपाय (सत्यार्थ प्रकाश)

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  हमारे ऋषि यों ने ब्रम्हचर्य पर बहुत सारी बातें कहे हैं जिनमें उनका मुख्य उद्देश्यय है वीर्य का संरक्षण करना होता है और इसके लाभ और इसे संरक्षण के उपाय बतलाये है। ब्रह्मचर्य का प्रथम अर्थ संभोग की शक्ति का संचय करना। दूसरा अर्थ शिक्षा और ‍भक्ति का संचय करना और तीसरा अर्थ ब्रह्म की राह पर चलना। अर्थात सिर्फ संचय ही संचय करना। कुछ भी खर्च नहीं करना। हमारी ऋषि यों ने यह भी लिखा है कि लोगों को भी वीर्य के हानि और लाभ दोनों बदला देनी चाहिए  और जबसे ब्रह्मचर्य श्री की शिक्षा मिल जाये तभी से इसे पालन करे। जिनमें निम्नलिखित हैं:- 1. ऋषियों ने कहा है कि प्रत्येक बच्चे को 8 वर्ष की आयु से उनके माता-पिता को कर्तव्य बनता है कि वह उनके वीर्य की रक्षा में आनंद और उसका लाभ बदला दें और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें वीर्य क्षरण से होने वाले जनार्दन दुख को भी बता दे अर्थात वीर्य संरक्षण से होने वाले सभी लाभकारी उपायों को बतलाए और शिक्षा दें। ऋषियों द्वारा बतायी गयी वीर्य रक्षा के लाभ:- उनके अनुसार जिसके शरीर में वीर्य होती है तथा संरंक्षित होते हैं वे आरोग्य होते हैं अर्थात उनमें रोग नहीं होते हैं

ब्रह्मचारी व्रत में स्थित होने का क्या अर्थ है अर्थात ब्रह्मचर्य क्या है तथा कैसे पालन करे?

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प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचरिव्रते स्थितः । मन: सयंमय मच्चितो युक्त आसीत मतपर: ।। यहां ब्रह्मचारी व्रत में स्थित होने का क्या अर्थ है? ब्रह्मचारी का तात्विक अर्थ  दूसरा  होने पर भी यहां वीर्यधारण उसका एक प्रधान अर्थ है और फिर धारण अर्थ है प्रसंगा कूल भी है। मनुष्य के शरीर में वीर्य एक ऐसा अमूल्य वस्तु है जिसकी भली-भांति संरक्षण किए बिना शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक किसी प्रकार का बल ना तो प्राप्त होता है ना ही उसका संचय ही होता है इसलिए आर्य संस्कृति में चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य प्रथम आश्रम है जो आगे तीनों आश्रम की नींव होती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी के लिए बहुत से नियम बनाए गए हैं जिनके पालन से वीर्यधारण में बड़ी भारी सहायता मिलती है। वीर्यधारण के फायदे क्या है? ब्रह्मचर्य के पालन से यदि वास्तव में वीर्य भली-भांति धारण हो जाए तो उस वीर्य से शरीर के अंदर एक विलक्षण विद्युत शक्ति उत्पन्न होती है और उसका तेज इतना शक्तिशाली होता है कि उस तेज के कारण अपने आप ही प्राण और मन की गति स्थिर हो जाती है और चित्त का  एकतानप्रवाह धेय्य वस्तु की ओर स्वभाविक ही होने लगता है और इसी